स्वतंत्रता के 75 वर्षों के बाद भी हम कितने स्वतंत्र। Hum Kitne Swatantra | Independence Day Special

Hum Kitne Swatantra | Independence Day Special

देश स्वतंत्रता के 75 वर्षों का जश्न अमृत महोत्सव या कहे आजादी का अमृत महोत्सव के तौर पर मना रहा है। एक लंबी दास्तां के पश्चात देश में अनेक बलिदान दिए तथा हमारे महापुरुषों ने स्वहित को भूलकर समाज हित और देश हित को सर्वोपरि रखते हुए अपना सर्वस्व न्योछावर करके देश को आजादी दिलाई। आजादी का जश्न मनाना प्रत्येक समाज के लिए अति है क्योंकि इससे हमारी अतीत की गलतियों का विश्लेषण करने का अवसर तो मिलता ही है साथ ही हमको जो स्वतंत्रता आज प्रधान या प्राप्त हुई है उसके लिए हमने कितने बलिदान किए हैं उनका सम्मान करना भी अति आवश्यक होता है जिससे आने वाली पीढ़ी उससे पूछ शिक्षा लेकर अतीत की गलतियों को दोहराने से बचें और राष्ट्र की स्वतंत्रता को हमेशा के लिए बनाए रखें।

परंतु आजादी के 75 वर्षों के पश्चात एक प्रश्न यह भी उठता है कि वर्तमान में हम स्वतंत्र राष्ट्र में कितने स्वतंत्र हैं । कोई भी समाज तभी प्रगति कर सकता है और नए मूल्यों को ग्रहण कर सकता है जब वह समय-समय पर बिना किसी पूर्वाग्रह के समुचित रूप से अपना मूल्यांकन करना जानता हो।

किसी ने सत्य ही कहा है कि

यदि समय रहते सभी लोग अपनी स्वाधीनता का सम्मान करते तो परतंत्रता न देखनी पड़ती।

आज यहाँ इसी पर चर्चा करेंगे कि हमने अपनी स्वतंत्रता का कितना सम्मान किया हैं।

ये सत्य है कि 75 वर्षों में देश ने अनेक उपलब्धि प्राप्त की हैं। परंतु इतने वर्षों के पश्चात भी अनेक समस्याएं मौजूद है जिनपर गंभीरता से विचार किया जाना आवश्यक हैं।

सामाजिक क्षेत्र पर चर्चा करे तो देश में वर्तमान में अनेक समस्याएं मौजूद हैं । जो हमें आजादी के 75 वर्षों में यह एहसास समय-समय पर कराती रहती है कि आखिर और कितने वर्षों पश्चात हम इन समस्याओं का समाधान कर पाएंगे ।

Hum Kitne Swatantra
Hum Kitne Swatantra

जैसे कि समाज में जातिवाद, सांप्रदायिकता अंधविश्वास और आडंबर आदि के कारण समाज के एक बड़े वर्ग को समय-समय पर शोषित और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता हैं।

जैसे अभी का ताजा उदाहरण ले तो एक दलित छात्र की पिटाई उसके अध्यापक द्वारा इस बेरहमी से की जाती है कि उसकी मृत्यु हो जाती है। यह तो देश के एक कोने की एक ख़बर मात्र है ऐसे ही अनेक घटनाएं दिन प्रतिदिन देश के अलग-अलग हिस्सों में होती रहती है।

वही जातिवाद के अलावा समाज में एक सबसे बड़ी समस्या सांप्रदायिकता की भी है। वर्तमान में सांप्रदायिकता का घिनौना चेहरा दिन प्रतिदिन देखने को मिल ही जाता है। जहाँ आजादी के 75 वर्षो के पश्चात भी बड़ी ही निर्ममता से संकुचित सोच के कारण किसी की जान ले ली जाति है।

तब फिर यही प्रश्न उठता है कि इस आजादी में कहाँ है जीने की आजादी ??

वही अंधविश्वास की वजह से रोज अनेक व्यक्तियों को चर्म स्तर का शोषण झेलना पड़ता हैं। जहाँ कुछ विकृत मानसिकता के लोग आजादी को कुछ भी करने की आजादी समझ कर टोना-टोटका , झाड़ फूंक के नाम पर गरीब और अनपढ़ महिलाओं का बलात्कार तक कर देते हैं। इन्हें देख कर फिर वही प्रश्न उठते है कि

इन विकृत मानसिकता से आजदी कब मिलेंगी ?
कब समाज इनके विरोध में एक स्वर हो पाएगा ?

समाज में महिलाओं के प्रति अपराधों का भी एक बड़ा डेटा मौजूद है । दहेज प्रथा, पुत्र मोह आदि कारणों से महिलाओं को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ता है । खुद को प्रगतिशील समाज कहने वाले समाज में आज भी महिलाओं के स्वाभिमान से खिलवाड़ करने वाली “आटा -साटा प्रथा” और “धड़ीचा “ जैसी अनेक कुप्रथाएं आज भी मौजूद हैं।

वही आजादी के 75 वर्ष में यह प्रश्न भी उठता है कि इस स्वतंत्र भारत में हमारी माताएं, बहने स्वतंत्र रूप से सार्वजनिक स्थलों पर देर रात कितनी सुरक्षित और आजाद हैं ?

महिलाएं कार्य क्षेत्रों में कितनी स्वतंत्रता से हर समय कार्य कर पाती हैं ?

देश ने आजादी के पश्चात गरीबी के स्तर में कुछ कमी जरूर की है परंतु अभी भी एक बड़ा वर्ग एक समय की रोटी के लिए भी मोहताज़ हैं। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2016 – 2017 में भारत की 27.9 % आबादी गरीब थी।

किसान की आत्महत्या की ख़बर देश के किसी न किसी हिस्से से आ ही जाती हैं। किसान आज अनेक डर का गुलाम बना हुआ हैं किसी को बच्चो की स्कूल की फीस भरनी है , किसी को बेटी की शादी करनी है, किसी को बैंक का लोन भरना हैं।  आखिर किसान को कब इन डर की गुलामी से मुक्ति मिलेगी ?  

इन सामाजिक बुराईयों से त्रस्त व्यक्तियों का आज भी यही एक सवाल है कि आजादी के 75 वर्षों के पश्चात भी यदि हम इन बुराइयों से आजाद नहीं हो पाए तो आखिर कब होंगे ?

अगर राजनीतिक क्षेत्र की बात करें तो हमारे महापुरुषों ने एक  उज्ज्वल भविष्य के लिए देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर किया था। उन महापुरुषों ने शायद यह अनुमान भी नहीं किया होगा कि जो राजनीति किसी देश की दिशा और दशा निर्धारित करती हैं वही राजनीति आज अनेक विसंगतियों की पालक बन गयी हैं।

ऐसा प्रतीत होता है कि राजनीति ने ही परिवारवाद, भ्रष्टाचार , धनतंत्र, ध्रुवीकरण और तुष्टिकरण जैसी बुराइयों की जड़ो को जल देने का जिम्मा उठा रखा हैं।

 

राजनीति में आज भी महिलाओं की सहभागिता उस स्तर तक नहीं पहुंच पाई है । जिस स्तर तक होनी चाहिए थी ।

महिलाओं का भी यही प्रश्न हैं  कि आखिर कब तक उनके लिए कानून संवेदना की जगह स्वयं वेदना के आधार पर बनने शुरू होंगे। 

अर्थात कब सामाजिक , राजनीतिक , आर्थिक आदि क्षेत्र में उनकी सहभागिता बढ़ने के पक्ष में सकारात्मक माहौल बनेगा।

आज भी संसद और विधानसभाओं में पुरुषों का ही वर्चस्व है। आज लोकतंत्र धनतंत्र बन चुका है । जिसमें चुनाव जीतने के लिए धन को पानी की तरह बहाया जाता है । आज एक आम आदमी और गरीब आदमी का चुनाव में भागीदारी के लिए सोचना भी एक सपने जैसा ही हैं।

यहाँ पर गोदान उपन्यास की कुछ पंक्तियां याद आती हैं –

जिसे हम डेमोक्रेसी कहते हैं, वह व्यवहार में बड़े-बड़े व्यापारियों और जमीदारों का राज्य है, और कुछ नहीं। चुनाव में वही बाजी ले जाता है, जिसके पास रुपये हैं।

आज लोकतंत्र दिखावा तंत्र बनकर रह गया हैं।

लोकतंत्र में यदि दिखावातंत्र बढ़ता जाता है तो नेताओं का व्यक्तित्व भी दोगलेपन का शिकार होता चला जाता हैं।

आज युवा देश की राजनीति को बदलने के नारे लगा रहा हैं। परंतु उसे समझ नहीं आ रहा है कि वो जो सोच रहा है वो उसी की व्यक्तिगत सोच है या किसी ने उसकी सोच पर अपना प्रभाव जमा दिया हैं।

आज युवाओं ने अनेक बुराइयों को अपने जीवन का हिस्सा बना लिया हैं। भारत आज युवाओं का देश हैं परंतु युवाओं का एक बड़ा वर्ग आज नशे की लत में हैं। जिससे वो अपने , समाज के और देश के सपनों को गहरा आघात दे रहा हैं। जिस युवा के कंधो पर देश का भार हैं उसके कंधे अनेक बुराइयों के कारण झुकें जा रहे हैं।

युवाओं का एक बड़ा वर्ग बेरोजगारी का दंश झेल रहा हैं। जहाँ वह एक ओर समाज और देश के लिए कुछ कर गुज़रने के लिए पर्याप्त जज़्बा रखता हैं तो वही दूसरी ओर बेरोजगारी के कारण उसके मस्तिष्क में भविष्य के जीवन यापन का प्रश्न भी एक डरावने सपने की भाँति खड़ा हैं।

एक अन्य सबसे बड़ी समस्या ये हैं कि आज हम शारीरिक रूप से तो स्वतंत्र हैं परंतु मानसिक रूप से अभी भी पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं हो पाए हैं जैसे कि देश का एक बहुत बड़ा वर्ग आज भी अपनी स्थानीय पहचान जैसे कि बोली-भाषा, वेश-भूषा पर गर्व करना नहीं जानता है । वर्षों पहले जो हीन भावना अंग्रेजो ने हमारे पूर्वजों के दिमाग में भरी थी वही हीन भावना हम आज भी अपनी स्थानीय पहचान को लेकर चल रहे हैं।

जब तक हम खुद पर गर्व करना नहीं जानेंगे तब तक हमारा देश विश्व का मार्गदर्शन नहीं कर पाएगा। अतः यह आवश्यक है कि आज मानसिक हीनता को समाप्त करके अपनी स्थानीय पहचान और राष्ट्रीय पहचान पर गर्व करना होगा।

अंत में उस बुद्धिजीवी वर्ग पर भी चर्चा करना अति आवश्यक है जो आज इतना संवेदनहीन हो चुका है कि उसकी तरफ से देश में कितनी ही बड़ी घटना क्यों न घट जाए परंतु उसको कोई फर्क ही नहीं पड़ता है।

उस बुद्धिजीवी वर्ग का कर्तव्य है कि वह अनपढ़ जनता को मार्गदर्शन प्रदान करें तथा जो समाज हित में हो उसके पक्ष में खुलकर बोले। वही मीडिया को भी अपने बड़े-बड़े ए.सी ( AC) के दफ्तरों से बाहर आकर आम इंसान की समस्याओं को देश के सामने रखना होगा नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ से जनता का विश्वास पूर्णतः खत्म हो जाएगा और इनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।

वहीं युवा जिन सिनेमा के सितारों को अपना रोल मॉडल मानते हैं।  उन्हें भी अपने व्यवहार में सजगता का प्रदर्शन करना होगा क्योंकि आज युवाओ का एक बड़ा वर्ग उनकी जीवनचर्या से प्रभावित होता हैं। ऐसे में उन्हें भी सिनेमा क्षेत्र में फ़ैली विसंगतियों जैसे कि नशा , हुल्लड़बाजी आदि से बाहर निकल कर खुद को साबित करना होगा । साहित्य समाज का आईना होता है जो उसे उनकी कमी दिखा कर सकारात्मक सुझाव प्रदान करता हैं। भारतीय सिनेमा को भारतीय संस्कृति का सम्मान करते हुए समाजहित में सन्देश देने वाली फिल्मों को निर्माण करना चाहिए।

अगर ऐसा नही होता तो फिर यही प्रश्न मस्तिष्क में आएगा कि आख़िर 75 वर्षो के आजादी के बाद भी हमारा बुद्धिजीवी वर्ग इतना जागरूक, संवेदनशील, कर्तव्यनिष्ठ क्यों नही बन पाया हैं ?

इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश ने इन 75 वर्षों में अनेक क्षेत्रों में बहुत अच्छी तरक्की भी की है तथा देश ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी अपनी उपस्थिति को सशक्तता से दर्ज किया है।

परंतु आज भी एक वर्ग ऐसा है जो अपने कर्तव्य से उदासीन बना हुआ है तथा कुछ व्यक्ति स्वहित को सबसे ऊपर रखते हुए जीवन व्यतीत करते हैं। आज भी व्यक्तिगत हित में किसी को हानि पहुंचाने से पीछे नहीं हटते और जो ये कहकर अपने कर्तव्य से मुंह मोड़ते है कि हमे क्या उनके लिए दिनकर की ये पंक्तियां –

” समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी अपराध।।”

अंत मे यहीं कहेंगे कि भारत राष्ट्र आचार्य चाणक्य, स्वामी विवेकानंद , स्वामी दयानंद , अब्दुल कलाम की भूमि हैं। जो हमेशा से महान था और हमेशा महान बनाएं रखना प्रत्येक भारतवासी का कर्तव्य हैं।

जय हिंद जय भारत।

 

 

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