मानव व्यवहार में दोनों प्रवृत्तियां रही हैं, एक तरफ क्रोध और लोभ तो दूसरी तरफ प्रेम और त्याग ” एक ओर इतिहास के पन्ने अनेक ऐसे उदाहरण से भरे पड़े है जहाँ इंसान ने स्वहित को त्याग कर समाजहित के लिए अनेक त्याग व बलिदान दिए हैं। वही दूसरी ओर ऐसे उदाहरण भी कोई कम नहीं मिलते जब इंसान ने स्वार्थ सिद्धि हेतु अनेक मर्यादाओं का उल्लंघन भी किए हैं। ऐसे ही मर्यादाओं का उल्लंघन इंसान प्रकृति के संबंध प्रकृति अत्यधिक दोहन करके भी दिन प्रतिदिन करता ही जा रहा हैं । जब इंसान भौतिकतावादी संस्कृति के कारण स्वार्थ को सर्वोपरि रखता हैं तब त्याग की प्रवृत्ति लोभ में परिवर्तित होने लगती हैं ।

इंसान ने दिन प्रतिदिन लोभ की सीमाओं के विस्तार द्वारा प्रकृति के दोहन में निरंतर वृद्धि करके सम्पूर्ण जीव जगत के सामने एक गंभीर स्थिती उपस्थित कर दी हैं। इसी मूर्खतापूर्ण व्यवहार के कारण आज पूरा विश्व जहाँ एक महामारी से पीड़ित है; जिसके कारण अनेक व्यक्तियों को असमय मौत का शिकार बना दिया हैं। आज इंसान के सामने एक ऐसा अवसर है कि वो अपने व्यवहार , संस्कृति पर विचार कर सकता हैं और उसे प्रकृति अनुरूप जीवन यापन करने का प्रयास कर सकता हैं ।

महात्मा गांधी जी ने कहा भी है कि ” प्रकृति हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति तो कर सकती है परंतु हमारे लालच की नहीं। “

हमारी भारतीय संस्कृति, दर्शन में प्रकृति के साथ समन्वय और सहयोग का सदैव समर्थन किया गया हैं।
हमारे शास्त्रों , ग्रंथो द्वारा भी संतोष को सर्वोपरि गुणों में स्थान दिया गया हैं। इससे जहाँ एक ओर तो हमे संसाधनों के उचित प्रयोग की शिक्षा मिलती है वही हमे उपभोक्तावादी संस्कृति से भी कोसों दूर रखने का प्रयास करती हैं।

वही पाश्चात्य संस्कृति में प्रकृति के महत्व को नज़रअंदाज करके व्यक्ति की इच्छाओं को महत्व दिया क्या गया हैं। इंसान अपने लालच के लिए प्रकृति का किसी भी प्रकार से दोहन करता हैं तो भी उसे विकास का ही नाम दिया जाता हैं। पाश्चात्य चिंतन इच्छाओं को बराबर बढ़ाने और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु किसी भी हद तक जाने का हमेशा से ही समर्थन करता आया हैं।
पाश्चात्य चिंतन में मर्यादाओं को रेखांकित करने का प्रयास बहुत कम हुआ है या कहे कि मर्यादाओं को इछाओ से कम महत्व दिया गया हैं। परंतु हमे ध्यान रखना होगा कि प्रकृति की अपनी भी मर्यादाएं होती हैं।

पंडित दीनदयाल उपध्याय जी ने इस बारे में उल्लेख भी किया था कि उनके अनुसार पश्चिम की सभी नीतियों को भारत मे लागू नही किया जा सकता । उनका सही मानना था कि ” किसी भी विदेशी तकनीक या पूंजी के साथ वहाँ की संस्कृति भी साथ में आती है। “
और आज के परिप्रेक्ष्य में ये बात शत-प्रतिशत सही भी हैं।  आज भारतीय समाज मे भी उपभोक्तवादी संस्कृति ने अपनी पकड़ मजबूती से बना ली हैं। उपभोक्तावाद का सबसे बड़ा उदाहरण आज बड़े बड़े खरीदारी मॉल में देखने को मिलता हैं । जहाँ बड़ी बड़ी कंपनी अपने सामान बेचने के लिए मनोविशेषज्ञ , या अन्य मानव व्यवहार या व्यापार की जानकारी रखने वाले विशेषज्ञों की सहायता से मॉल ( shopping malls) को व्यवस्थित कराते हैं कि कौन सी वस्तु कहाँ रखना सही होगा ??
जिससे उसके खरीदने की संभावनाए बढ़ जाए।
जौसे की भुगतान स्थान ( payment counter) के समीप फ्रीज़ में चॉकलेट , कोल्ड ड्रिंक्स आदि रखी जाती हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि अंतिम समय मे इन्ही वस्तुओं पर ग्राहक एक बार दाव लगाने की कोशिश करेगा।

मानव व्यवहार का प्रकृति पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव अवश्य पड़ता हैं ; और वो प्रभाव सकारात्मक और नकारात्मक दोनो हो सकते हैं। इंसान समस्त प्राणी जाति में एक ऐसा प्राणी है; जिसने अपने स्वार्थ के लिए समस्त प्रकृति की व्यवस्था को विकृत करने का काम किया हैं। जो जानवर इंसान को सीधे लाभ न दे रहा हो उसको इंसान ने विलुप्ति की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया हैं। परंतु इंसान को समझना होगा कि प्रत्येक प्राणी का प्रकृति में एक विशेष कार्य होता हैं जिसको सम्पन करके वो प्रकृति के नियमों को संतुलित करता हैं।

अतः अब वो समय आ गया है कि जब इंसान को संस्कृति और विकृति में अंतर समझ लेना ही उचित होगा ; उसके लिए भी उसके आने वाली पीढ़ी के भले के लिए भी समस्त प्रकृति के लिए भी।
“अपनी आवश्यकता पूर्ति हेतु प्रकृति से सहयोग व समन्वय बनाकर चलना संस्कृति हैं ; जबकि उसे अपने लालच की पूर्ति के साधन समझना विकृति हैं।”