उपभोक्तावाद :- एक घातक विकृति/ Consumerism in hindi

उपभोक्तावाद  :- एक घातक विकृति

आमतौर पर किसी वस्तु की गुणवत्ता के स्थान पर उसकी चमक धमक , सामाजिक प्रतिष्ठा आदि को सर्वोपरि रख कर सोचना , अधिक से अधिक वस्तुओं के स्वामी बनने की लालसा करना चाहे वो उपयोगी हो या न हो इन्हीं सब को उपभोक्तावाद कहा जाता हैं। अगर दिन प्रतिदिन के उदाहरण देखे तो हज़ारों रुपये का चश्मे का ढाँचा ( frame ) खरीदना , केवल इसलिए चश्मे का उपयोग करना कि उससे हम दुसरों के आगे अच्छा दिख सके, कोई सामान खरीदते समय उसकी गुणवत्ता के स्थान पर ये दिमाग में आना कि ये मेरे पड़ोसी को कैसा लगेगा, ये दिमाग में आना कि क्या इस वस्तु से समाज में मेरी प्रतिष्ठा बढ़ेगी  ये सब ही उपभोक्तावाद के लक्षण होते हैं।

भारतीय समाज मे कैसे प्रवेश हुआ

भूमंडलीकरण या वैश्विकरण से जब सम्पूर्ण विश्व एक गाँव की तर्ज पर कार्य करने लगा ; व्यापार के खुले रास्ते , बड़ी बड़ी कंपनियों को कही भी व्यापार करने की स्वतंत्रता आदि ने जहाँ एक और तकनीक का हस्तांतरण तो किया ही साथ में संस्कृति का भी हस्तांतरण हुआ ।
पंडित दीनदयाल उपध्याय जी ने इस बारे में उल्लेख  किया था कि  पश्चिम की सभी नीतियों को भारत मे लागू नही किया जा सकता ।


” किसी भी विदेशी तकनीक या पूंजी के साथ वहाँ की संस्कृति भी साथ मे आती है। “

उपभोक्तावाद से हानि

वैश्विकरण के कारण जहाँ अनेक लाभ तो हुए ही परन्तु भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश कहे जाने वाले विकासशील देशों को अनेक गंभीर नुकसान भी झेलने पड़ रहे हैं।
“पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से एक ऐसा अभिजात्य वर्ग तैयार हुआ जो देखने मे तो भारतीय ही नज़र आता हैं परंतु सोच विचार में पाश्चात्य संस्कृति के आगोश में समाया रहता हैं।”

इस अभिजात्य वर्ग के क्रिया कलाप में चिंतन का कोई स्थान है ही नही । इसके लिए वस्तु की गुणवत्ता से ज्यादा उसकी चमक धमक में आनंद होता है तथा ये वास्तुओं को सामाजिक प्रतिष्ठा का आधार मानता हैं।


इस वर्ग की भारतीय समाज को यह नकारात्मक देन है कि इनकी देखा देखी करके आज मध्यम और निम्न वर्ग में भी उपभोग की वास्तुओं को पाने की लालसा दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही हैं । जिसने भारतीय समाज की सम्पूर्ण व्यवस्था को ध्वस्त करके देश को अन्य विकसित देशों के सामने कमजोर बनाने में पूर्ण योगदान दिया हैं।

ऐसी वस्तुओं को सर्वोपरि रखने के कारण ही देश की जो पूँजी समाज की आवश्यक वास्तुओं की पूर्ति में लगनी चाहिए थी। वो समाज की इन अनावश्यक इच्छाओं की पूर्ति में लग रही हैं। ऐसी वास्तुओं के निर्माण में मंहगी तकनीक तथा अधिक पूंजी की आवश्यकता होती हैं ।

ऐसी वास्तुओं के उत्पादन से प्राकृतिक संसाधनों पर अत्यधिक बोझ पड़ता हैं। समाज जिस धन का उपयोग पहले समाजहित में करता था ; वही अब वो धन अनावश्यक कार्यो में लग रहा हैं।


उपभोक्ताववाद ने भारतीय समाज की संस्कृति को पूर्णत ध्वस्त करने में कोई कमी नही छोड़ी हैं। ग्रामीण गरीब जनता भी इन वास्तुओं को प्राप्त करने के लिए लालायित है । क्योंकि इन्हें ही प्रतिष्ठा का आधार मान लिया गया हैं। उपभोक्ताववाद की वजह से ही आवश्यक क्रिया कलाप पर खर्च होने वाला धन इन अनावश्यक वास्तुओं पर हो रहा हैं।

अनेक लोगो को देशभक्ति जैसे विषयों पर बाते करते देखना आम बात हैं परंतु खुद आज उपभोक्तावाद की संस्कृति को अत्यधिक अपनाया जा रहा हैं जो खुद कही न कही इस देश की व्यवस्था , संस्कृति को खत्म करने में अपना योगदान दे रहे होते हैं।  हर इंसान को अपने प्रत्येक कार्य करने से पहले ये अवश्य विचार करना चाहिए कि कही किसी भी प्रकार से ये कार्य हमारी संस्कृति या व्यवस्था को नुकसान तो नही पहुँचा रहा हैं।

आज युवाओं के आदर्श फिल्मी सितारे , क्रिकेटर हो गए है जो खुद उपभोक्तावादी संस्कृति के चलते फिरते उदाहरण हैं । युवाओं में ये चर्चाएं आम होती है कि उस फला खिलाड़ी के पास 20 कारे हैं , ये हैं , वो हैं ।

ये बाते कही से भी उनकी प्रगतिशील सोच का प्रतिनिधित्व नही करती हैं बल्कि ये सब उपभोक्तावादी संस्कृति की ओर बढ़ते युवाओं के लक्षण मात्र ही होते हैं। आज नेट पर जितनी किताबें नही खरीदी जाती उससे कही अधिक भोग की वास्तुओं की खरीददारी की जाती हैं।

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