कविता : सवाल गरीबों के

सवाल गरीबों के ।

 

चलो आज कुछ बीते सालों की बात हो जाए।
रसगुल्ला छोड़ो मुंह के निवालों की बात हो जाए।

 

दिन और रात दोनों पहर में जगे हैं कई बदन,
पैरों के तलवों में पड़े उन छालों की बात हो जाए।

 

जो लुट गए उन बेचारे खस्ता हालों की बात हो जाए।
और जो लूट गए उन मालामालों की बात हो जाए।

 

रईसों को झांकने दो अपने ऊंचे-ऊंचे मकानों से।
जरा बेसहारा गरीबों के सवालों की बात हो जाए।

 

दरवाजों पर लग चुके इन तालों की बात हो जाए।
फटे हुए कपड़ों में पड़े इन टालों की बात हो जाए।

 

समुंदर के नजारे कब तक दिखाओगे यार हमें,
अब जरा उन बहते गंदे नदी-नालों की बात हो जाए।

 

रोजाना हो रहे तमाम घोटालों की बात हो जाए।
दूध से मलाई चाट रहे उन दलालों की बात हो जाए।

 

तिलक टोपियां सब अपने-अपने लिए हैं भाई मेरे,
शहर गावों में हो रहे इन बवालों की बात हो जाए।

 

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