सामाजिक लोकतंत्र क्या हैं ? डॉ अंबेडकर द्वारा संविधान सभा में सामाजिक लोकतंत्र से सम्बंधित विचार | What is Social Democracy in Hindi |
डॉक्टर अंबेडकर 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा दिए गए अपने समापन भाषण में विशेष बल देते हुए कहा था कि-
राजनीतिक लोकतंत्र तब तक स्थाई नहीं बन सकता , जब तक कि उसके मूल में सामाजिक लोकतंत्र (Social Democracy in Hindi) नहीं हो। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है। इसका अर्थ है- वह जीवन परिचय जो स्वाधीनता, समानता और बंधुत्व को मान्यता देती हो। स्वाधीनता ( स्वतंत्रता ), समानता और बंधुत्व के सिद्धांतों को अलग से नहीं देखा जाना चाहिए। या कहे कि स्वतंत्रता , समता और बंधुत्व के सिद्धांतो को इन तीनो के एक संयुक्त रूप से पृथक – पृथक रूपों में नहीं समझना चाहिए। यह आपस में मिलकर एक तरफ की रचना इस अर्थ में करते हैं कि यदि इनमें से एक को भी अलग कर दिया जाए तो लोकतंत्र का उद्देश्य ही पराजित हो जाता हैं। स्वाधीनता को समानता से अलग नहीं किया जा सकता और समानता को स्वाधीनता से अलग नहीं किया जा सकता। उसी प्रकार स्वाधीनता और समानता को बंधुत्व से भी अलग नहीं किया जा सकता है। समानता के अभाव में स्वाधीनता से कुछ का आधिपत्य अनेक पर स्थापित होने की स्थिति बनेगी। समानता बिना स्वाधीनता की व्यैक्तिक पहल को समाप्त कर देगी।
Social Democracy in Hindi
उपरोक्त चर्चा को अगर सरलता से समझने का प्रयास करें तो इसमें कहा गया है कि मान लो अगर समाज में स्वाधीनता तो प्रदान कर दी जाए परंतु समानता की भावना समाप्त हो जाए। तो समाज में कुछ ऐसे वर्ग जो शक्तिशाली या फायदे की स्थिति में मौजूद है वह अन्य व्यक्तियों पर या समूह पर अपना आधिपत्य स्थापित कर सकते हैं। मान लो कोई वर्ग राजनीतिक , सामाजिक और आर्थिक तौर पर मजबूत है और अगर समाज में स्वाधीनता , स्वतंत्रता की स्थिति तो मौजूद है परंतु समानता की स्थिति को लागू नहीं किया गया है। तो ऐसी स्थिति में वह समूह अन्य समूह पर अपना आधिपत्य स्थापित कर सकता है।
वही अगर दूसरे तत्व को समझा जाए तो यदि अगर समाज में समानता तो मौजूद है परंतु स्वाधीनता या स्वतंत्रता मौजूद नहीं है तो इस स्थिति में व्यक्तिगत पहल या कहे कि उद्यमशीलता समाप्त हो जाएगी क्योंकि अगर समाज में समानता मौजूद है और स्वतंत्रता मौजूद नहीं है तो कोई भी व्यक्ति या समूह कुछ नई पहल करने की कोशिश नहीं करेगा। वहां पर उनको इस चीज की स्वाधीनता मौजूद नहीं होगी, जिससे समाज में व्यक्तिगत पहल और अथवा उद्यमशीलता का गुण समाप्त हो जाएगा।
वहीं तीसरे बिंदु पर चर्चा करें तो स्वाधीनता और समानता को बंधुत्व की अवधारणा से अलग करके भी देखा नहीं जा सकता है। यदि समाज में स्वाधीनता और समानता मौजूद है परंतु बंधुत्व की भावना मौजूद नहीं है तब भी यह एक समाज के लिए उचित व्यवस्था नहीं होगी।
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